Wednesday, May 4, 2016

स्थान का रहस्य


स्थान का रहस्य

स्थान का रहस्य  यह ब्रह्माण्ड विशालकाय है। इसका विस्तार भी हो रहा है । स्पष्ट है कि जिसमें यह अपना विस्तार करता जा रहा है, वह ‘स्थान’ है। यदि ‘स्थान’ न हो, तो यह अपना विस्तार नहीं कर सकता। फिर यह भी प्रश्न उठता है कि जहाँ स्थान है; वहाँ कुछ न कुछ तो होगा; क्योंकि बिना किसी ‘तत्व’ के स्थान बना नहीं रह सकता। जब कुछ नहीं, तो स्थान भी नहीं होगा। इसलिए पूरी तरह स्पष्ट है कि इस स्थान में कुछ न कुछ है। इसके साथ यह भी प्रश्न उठता है कि इस स्थान का विस्तार कहाँ तक है?     बहुत सारे प्राचीन आचार्यों ने इसके सम्बन्ध में कहा है। विशेषकर उपनिषद और अनेक प्राचीन ग्रंथों में टुकड़ों में यत्र-तत्र जो कहा गया है; उससे ज्ञात होता है कि इस ‘स्थान’ का कोई प्रारंभ या अंत नहीं है। यह सर्वव्याप है। इसमें एक ऐसा नॉन फिजिकल (जो भौतिक नहीं है) तत्व फैला हुआ है, जो परम सूक्ष्म, परमविरल, परम ऊर्जा मय और सर्व चैतन्य है। इतने सारे गुण रहते हुए भी यह तत्व निर्गुण है; क्योंकि दूसरा कोई नहीं है, जिसके साथ प्रतिक्रिया करके यह अपने गुणों को प्रकट करे। इसे उपनिषदों में निर्गुण निराकार तत्व के रूप में यत्र – तत्र वर्णित किया गया है। तन्त्र ग्रंथों में इसे सदाशिव कहा गया है। अनेक अन्य विवरणों में यह भी कहा गया है कि यह तत्व अजन्मा और अविनाशी है अर्थात् यह न तो उत्पन्न होता है, न ही नष्ट होता है। यह एक ही है, इसमें कोई भेद-विभेद नहीं है।     इन विवरणों के अनुसार यह परमतत्व ही इस सृष्टि का सार तत्व है। इसमें जब तक सृष्टि की क्रिया नहीं होती, तब तक कोई गुण , आकार, क्रियात्मकता नहीं होती। जिस ब्रह्माण्ड को हम अनुभूत करते है ; वही प्रकृति है या सृष्टि है। यह प्रकृति एक सूक्ष्मतम परमाणु के रूप में प्रकट होती है और अपना विस्तार करती हुई विशालकाय ब्रह्माण्ड के रूप में अनंत रूप-गुण और क्रियाओं को व्यक्त करने लगती है। यह प्रक्रिया किसी प्रकार की उत्पत्ति नहीं है। नया कोई तत्व उत्पन्न नहीं होता। यह परम तत्व की धाराएं से बननेवाली एक जटिल संरचना है। इसमें उसके सिवा और कुछ भी नहीं है। यह ऐसा ही हैं, जैसा वायु में चक्रवात, जल में भंवर बनता है। अंतर केवल इतना है कि अपने विलक्षण (जो भौतिक नहीं) अस्तित्त्व के कारण यह अपनी धाराओं से एक जटिल संरचना बनाकर उसी में अपने गुणों को प्रकट कर रही है।     सामान्यतया देवी-देवताओं के बाद के वैज्ञानिक विवरणों में विचरण कर रहे लोगों को शायद यह समझ में न आयें; क्योंकि बहुत से लोग प्रकृति को जड़ और चेतना को परमात्मा प्रदत्त मानकर बहस करने लगते है। ऐसे लोग अपनी आस्थाओं में जीने के लिए स्वतंत्र है; जैसा कि आधुनिक विज्ञापन, जो कभी कहता है कि एक गोला फट गया, तो कभी किसी इकाई में धूल कणों के संघनित होने की कहानी कहने लगता है; पर यह प्रश्न तो बना ही रहेगा कि यह जड़ प्रकृति; जो अनंत रूपों में ढल रही है, लगातार क्रियाशील है, जिसका एक रूप भी शाश्वत नहीं है, उसके बीच वह मूल सार कौन है, जो ढल रहा है?     वह चेतन है या जड़ है ; यह तोबाद का प्रश्न है। पहला प्रश्न तो यही है कि वह गोला किस पक्षी का अंडा था? क्या वह शाश्वत था? यदि हां, तो उसमें क्रिया कैसे उत्पन्न हो गयी? धूल कण कहाँ से आ गये ?     इन प्रश्नों में उलझ कर मैंने बहुत समय तक मानसिक परिश्रम किया था, पर सिवा रहस्यों के विचित्र मायाजाल में फंसने के कोई तर्क पूर्ण आधार नहीं मिला। जहाँ तक धार्मिक आस्थाओं के देवी-देवताओं का प्रश्न है; वे सत्य है, वैज्ञानिक है; पर वे परमतत्व की धाराओं से बनने वाले इस विशेष ऊर्जा संरचना की ही शक्तियां है। इनका कोई मानवीय और स्थूल रूप नहीं है। जब हम इनकी व्याख्याओं तक पहुचेंगे और भी आश्चर्यचकित कर देने वाले सत्यों का ज्ञान होगा। हम नहीं जानते कि उस युग में जब ऊर्जा तरंगों के आधुनिक स्वरुप का ज्ञान नहीं था; इन सूक्ष्मतम तरंगों एवं संरचनाओं का ज्ञान उन लोगों को कैसे हुआ, जिनको हमारे विद्वान और प्रभावशाली लोग सपेरे, अग्निपूजक, चरवा है और टिकी रखने वाले , नंगे पांव घूमने वाले को पीनधारी गंवार से अधिक कुछ नहीं समझते। निसंदेह मैंने अपने प्रयत्नों से इस सम्पूर्ण विज्ञान को जाना है और सिएमिन आधुनिक विज्ञान की जानकारियों का एक बड़ा हाथ रहा है ; पर हमने इस विज्ञान के विवरण प्राचीनतम ग्रंथों में भी देखे है, भले ही वे अपने अपने ढंग से कहे गये है। जब मैंने उन विशाल विस्तार में फैले संस्कृत के अछूत समझकर लाइब्रेरीयों और विश्वविद्यालयों में धूल फाँक रहे इन ग्रंथों को पढ़ा है, मेरी हालत यह हो गयी कि समझ नहीं आया कि मैं रो पडू या अपने देशवासियों एवं संस्कृति के द्रोहियों की अज्ञानता पर ढहाका लगाऊं। एक अद्भुत विशालकाय विस्तृत और सूक्ष्मतम स्तर का ऊर्जा विज्ञानं , परमाणु विज्ञान, सृष्टि विज्ञान , नक्षत्र विज्ञान, जीव विज्ञान रहते हुए भी हम सारे विश्व में तकनीकी की भीख मांग रहे है।     ये सभी प्रमाणित है। आप भौतिक रूप में भी इसके प्रमाण एकत्रित कर सकते है । यदि किसी विज्ञान की व्याख्याओं के 90% प्रमाण अकाट्य रूप से प्रमाणित हो जाए, तो 10% जो आपके उपकरणों की अनुभूति सीमा के बाहर है; को भी सत्य मानने से कोई ऐतराज नहीं होना चहिये। महर्षि गौतम ने कहा था कि दो या दो से अधिक सत्य तथ्यों पर आधारित अनुमान भी सत्य ही होता है। विश्व को सर्व प्रथम कार्य-कारण नियम देने वाले न्याय दर्शन के इस प्रणेता का कहीं नाम ही नहीं है। ये दोनों यूरोपियन व्यक्तित्वों की देन समझे जाते है। जबकि इनके विवरण प्राचीन रूप में प्राप्त है। ऐसा नहीं है कि हमारे विद्वानों या सरकारों को इसका ज्ञान न हो; क्योंकि 1970 ई. से ही यह दर्शन शास्त्र के कोर्सों में पढ़ाया रहा है।     परमतत्व के इस अनंत विस्तार में सृष्टि के प्रपंच की उत्पत्ति (तन्त्र ग्रंथों में इसे प्रपंच ही कहा गया है, क्योंकि यह उत्पत्ति नहीं, एक विक्षेप है यानि स्वरुप का परिवर्तित अनुभूत होना) को बहुत से प्राचीन आचार्यों एवं ऋषि मुनियों ने इसे ‘महामाया’ कहा है। एक ऐसा मायाजाल जिसमें कुछ भी नया उत्पन्न नहीं होता; पर इसमें स्थित जीवों (इकाइयों) में अनुभूति की क्षमता में भिन्न-भिन्न शक्ति और फ्रीक्वेंसी रहने के कारण अनंत उत्पत्तियों और गुणों का प्रत्यक्ष होता है।     तन्त्र ग्रंथों में कहा गया है कि यह प्रपंच कोई आकस्मिक अनियंत्रित क्रियाओं के रूप में उत्पन्न नहीं होता। यह सब नियम बद्ध रूप से उत्पन्न होकर नियम बद्ध रूप में ही क्रिया और विकास के पथ पर सक्रिय है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन नियमों एवं सूत्रों से , जिन क्रियाओं से, जिस संरचना में इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है और विकास होता है; उन्ही नियमों एवं सूत्रों से इसकी प्रत्येक बड़ी या छोटी इकाइयों की उत्पत्ति, क्रिया, संरचना, विकास एवं संहार का स्वरुप होता है। यानी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और इसकी इकाइयों की उत्पत्ति से लेकर संहार तक , संरचना से लेकर क्रिया तक एक ही प्रकार के नियमों एवं सूत्रों से बद्ध है। इसमें कहीं कोई अपवाद नहीं है। ये नियम और सूत्र ब्रह्माण्ड के नहीं है। ये उस परमतत्व से उत्पन्न होते है। ब्रह्माण्ड और इसकी इकाईयां इससे शासित है। किसी सूक्ष्मत या विशालतम इकाई की शक्ति नहीं कि इन नियमों से बाहर चला जाए। ये नियम शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील है। ब्रह्माण्ड हजार बार उत्पन्न हो, नियम ये ही रहेंगे।     हमारे बुद्धिवादी और विज्ञानवादी प्रमाण प्रमाण चिल्लाने लगेंगे। इनके प्रत्यक्ष प्रमाण है। परन्तु पहले यह जानना जरूरी है कि वे नियम क्या है और यह सृष्टि कैसे उत्पन्न होती है और इसका विकास किस प्रकार होता है?

स्थान का रहस्य

यह ब्रह्माण्ड विशालकाय है। इसका विस्तार भी हो रहा है । स्पष्ट है कि जिसमें यह अपना विस्तार करता जा रहा है, वह ‘स्थान’ है। यदि ‘स्थान’ न हो, तो यह अपना विस्तार नहीं कर सकता। फिर यह भी प्रश्न उठता है कि जहाँ स्थान है; वहाँ कुछ न कुछ तो होगा; क्योंकि बिना किसी ‘तत्व’ के स्थान बना नहीं रह सकता। जब कुछ नहीं, तो स्थान भी नहीं होगा। इसलिए पूरी तरह स्पष्ट है कि इस स्थान में कुछ न कुछ है। इसके साथ यह भी प्रश्न उठता है कि इस स्थान का विस्तार कहाँ तक है?

बहुत सारे प्राचीन आचार्यों ने इसके सम्बन्ध में कहा है। विशेषकर उपनिषद और अनेक प्राचीन ग्रंथों में टुकड़ों में यत्र-तत्र जो कहा गया है; उससे ज्ञात होता है कि इस ‘स्थान’ का कोई प्रारंभ या अंत नहीं है। यह सर्वव्याप है। इसमें एक ऐसा नॉन फिजिकल (जो भौतिक नहीं है) तत्व फैला हुआ है, जो परम सूक्ष्म, परमविरल, परम ऊर्जा मय और सर्व चैतन्य है। इतने सारे गुण रहते हुए भी यह तत्व निर्गुण है; क्योंकि दूसरा कोई नहीं है, जिसके साथ प्रतिक्रिया करके यह अपने गुणों को प्रकट करे। इसे उपनिषदों में निर्गुण निराकार तत्व के रूप में यत्र – तत्र वर्णित किया गया है। तन्त्र ग्रंथों में इसे सदाशिव कहा गया है। अनेक अन्य विवरणों में यह भी कहा गया है कि यह तत्व अजन्मा और अविनाशी है अर्थात् यह न तो उत्पन्न होता है, न ही नष्ट होता है। यह एक ही है, इसमें कोई भेद-विभेद नहीं है।

इन विवरणों के अनुसार यह परमतत्व ही इस सृष्टि का सार तत्व है। इसमें जब तक सृष्टि की क्रिया नहीं होती, तब तक कोई गुण , आकार, क्रियात्मकता नहीं होती। जिस ब्रह्माण्ड को हम अनुभूत करते है ; वही प्रकृति है या सृष्टि है। यह प्रकृति एक सूक्ष्मतम परमाणु के रूप में प्रकट होती है और अपना विस्तार करती हुई विशालकाय ब्रह्माण्ड के रूप में अनंत रूप-गुण और क्रियाओं को व्यक्त करने लगती है। यह प्रक्रिया किसी प्रकार की उत्पत्ति नहीं है। नया कोई तत्व उत्पन्न नहीं होता। यह परम तत्व की धाराएं से बननेवाली एक जटिल संरचना है। इसमें उसके सिवा और कुछ भी नहीं है। यह ऐसा ही हैं, जैसा वायु में चक्रवात, जल में भंवर बनता है। अंतर केवल इतना है कि अपने विलक्षण (जो भौतिक नहीं) अस्तित्त्व के कारण यह अपनी धाराओं से एक जटिल संरचना बनाकर उसी में अपने गुणों को प्रकट कर रही है।

सामान्यतया देवी-देवताओं के बाद के वैज्ञानिक विवरणों में विचरण कर रहे लोगों को शायद यह समझ में न आयें; क्योंकि बहुत से लोग प्रकृति को जड़ और चेतना को परमात्मा प्रदत्त मानकर बहस करने लगते है। ऐसे लोग अपनी आस्थाओं में जीने के लिए स्वतंत्र है; जैसा कि आधुनिक विज्ञापन, जो कभी कहता है कि एक गोला फट गया, तो कभी किसी इकाई में धूल कणों के संघनित होने की कहानी कहने लगता है; पर यह प्रश्न तो बना ही रहेगा कि यह जड़ प्रकृति; जो अनंत रूपों में ढल रही है, लगातार क्रियाशील है, जिसका एक रूप भी शाश्वत नहीं है, उसके बीच वह मूल सार कौन है, जो ढल रहा है?

वह चेतन है या जड़ है ; यह तोबाद का प्रश्न है। पहला प्रश्न तो यही है कि वह गोला किस पक्षी का अंडा था? क्या वह शाश्वत था? यदि हां, तो उसमें क्रिया कैसे उत्पन्न हो गयी? धूल कण कहाँ से आ गये ?

इन प्रश्नों में उलझ कर मैंने बहुत समय तक मानसिक परिश्रम किया था, पर सिवा रहस्यों के विचित्र मायाजाल में फंसने के कोई तर्क पूर्ण आधार नहीं मिला। जहाँ तक धार्मिक आस्थाओं के देवी-देवताओं का प्रश्न है; वे सत्य है, वैज्ञानिक है; पर वे परमतत्व की धाराओं से बनने वाले इस विशेष ऊर्जा संरचना की ही शक्तियां है। इनका कोई मानवीय और स्थूल रूप नहीं है। जब हम इनकी व्याख्याओं तक पहुचेंगे और भी आश्चर्यचकित कर देने वाले सत्यों का ज्ञान होगा। हम नहीं जानते कि उस युग में जब ऊर्जा तरंगों के आधुनिक स्वरुप का ज्ञान नहीं था; इन सूक्ष्मतम तरंगों एवं संरचनाओं का ज्ञान उन लोगों को कैसे हुआ, जिनको हमारे विद्वान और प्रभावशाली लोग सपेरे, अग्निपूजक, चरवा है और टिकी रखने वाले , नंगे पांव घूमने वाले को पीनधारी गंवार से अधिक कुछ नहीं समझते। निसंदेह मैंने अपने प्रयत्नों से इस सम्पूर्ण विज्ञान को जाना है और सिएमिन आधुनिक विज्ञान की जानकारियों का एक बड़ा हाथ रहा है ; पर हमने इस विज्ञान के विवरण प्राचीनतम ग्रंथों में भी देखे है, भले ही वे अपने अपने ढंग से कहे गये है। जब मैंने उन विशाल विस्तार में फैले संस्कृत के अछूत समझकर लाइब्रेरीयों और विश्वविद्यालयों में धूल फाँक रहे इन ग्रंथों को पढ़ा है, मेरी हालत यह हो गयी कि समझ नहीं आया कि मैं रो पडू या अपने देशवासियों एवं संस्कृति के द्रोहियों की अज्ञानता पर ढहाका लगाऊं। एक अद्भुत विशालकाय विस्तृत और सूक्ष्मतम स्तर का ऊर्जा विज्ञानं , परमाणु विज्ञान, सृष्टि विज्ञान , नक्षत्र विज्ञान, जीव विज्ञान रहते हुए भी हम सारे विश्व में तकनीकी की भीख मांग रहे है।

ये सभी प्रमाणित है। आप भौतिक रूप में भी इसके प्रमाण एकत्रित कर सकते है । यदि किसी विज्ञान की व्याख्याओं के 90% प्रमाण अकाट्य रूप से प्रमाणित हो जाए, तो 10% जो आपके उपकरणों की अनुभूति सीमा के बाहर है; को भी सत्य मानने से कोई ऐतराज नहीं होना चहिये। महर्षि गौतम ने कहा था कि दो या दो से अधिक सत्य तथ्यों पर आधारित अनुमान भी सत्य ही होता है। विश्व को सर्व प्रथम कार्य-कारण नियम देने वाले न्याय दर्शन के इस प्रणेता का कहीं नाम ही नहीं है। ये दोनों यूरोपियन व्यक्तित्वों की देन समझे जाते है। जबकि इनके विवरण प्राचीन रूप में प्राप्त है। ऐसा नहीं है कि हमारे विद्वानों या सरकारों को इसका ज्ञान न हो; क्योंकि 1970 ई. से ही यह दर्शन शास्त्र के कोर्सों में पढ़ाया रहा है।

परमतत्व के इस अनंत विस्तार में सृष्टि के प्रपंच की उत्पत्ति (तन्त्र ग्रंथों में इसे प्रपंच ही कहा गया है, क्योंकि यह उत्पत्ति नहीं, एक विक्षेप है यानि स्वरुप का परिवर्तित अनुभूत होना) को बहुत से प्राचीन आचार्यों एवं ऋषि मुनियों ने इसे ‘महामाया’ कहा है। एक ऐसा मायाजाल जिसमें कुछ भी नया उत्पन्न नहीं होता; पर इसमें स्थित जीवों (इकाइयों) में अनुभूति की क्षमता में भिन्न-भिन्न शक्ति और फ्रीक्वेंसी रहने के कारण अनंत उत्पत्तियों और गुणों का प्रत्यक्ष होता है।

तन्त्र ग्रंथों में कहा गया है कि यह प्रपंच कोई आकस्मिक अनियंत्रित क्रियाओं के रूप में उत्पन्न नहीं होता। यह सब नियम बद्ध रूप से उत्पन्न होकर नियम बद्ध रूप में ही क्रिया और विकास के पथ पर सक्रिय है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिन नियमों एवं सूत्रों से , जिन क्रियाओं से, जिस संरचना में इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है और विकास होता है; उन्ही नियमों एवं सूत्रों से इसकी प्रत्येक बड़ी या छोटी इकाइयों की उत्पत्ति, क्रिया, संरचना, विकास एवं संहार का स्वरुप होता है। यानी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और इसकी इकाइयों की उत्पत्ति से लेकर संहार तक , संरचना से लेकर क्रिया तक एक ही प्रकार के नियमों एवं सूत्रों से बद्ध है। इसमें कहीं कोई अपवाद नहीं है। ये नियम और सूत्र ब्रह्माण्ड के नहीं है। ये उस परमतत्व से उत्पन्न होते है। ब्रह्माण्ड और इसकी इकाईयां इससे शासित है। किसी सूक्ष्मत या विशालतम इकाई की शक्ति नहीं कि इन नियमों से बाहर चला जाए। ये नियम शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील है। ब्रह्माण्ड हजार बार उत्पन्न हो, नियम ये ही रहेंगे।

हमारे बुद्धिवादी और विज्ञानवादी प्रमाण प्रमाण चिल्लाने लगेंगे। इनके प्रत्यक्ष प्रमाण है। परन्तु पहले यह जानना जरूरी है कि वे नियम क्या है और यह सृष्टि कैसे उत्पन्न होती है और इसका विकास किस प्रकार होता है?

 

देव शासनम् Web Developer

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